Rajput Rajvansh

बॉलीवुड और SP को क्यों खलती है राजपूत शान? (Bollywood OR SP Ko Kyu Khalti Hai Rajput Shan)

Bollywood OR SP Ko Kyu Khalti Hai Rajput Shan
Why Bollywood And Politics Hate Rajput


कभी-कभी कुछ मुद्दे इतने बार उठते हैं कि हमें लगता है — “क्या फिर वही बात?” लेकिन जब हम गौर से देखते हैं, तो समझ आता है कि कुछ बातें बार-बार इसलिए लौटती हैं क्योंकि उनके जवाब आज तक ढंग से नहीं मिले। आज हम एक ऐसे ही मुद्दे पर बात कर रहे हैं — आखिर क्यों बार-बार बॉलीवुड और कुछ पॉलिटिकल पार्टियां, खासकर समाजवादी पार्टी (SP), राजपूत संस्कृति और उनके इतिहास को लेकर बयानबाजी करती हैं, फिल्में बनती हैं, और विवाद पैदा होते हैं? क्या ये सब सिर्फ वोट बैंक और टीआरपी का खेल है? या फिर कहीं कुछ असली सामाजिक-राजनीतिक टकराव छुपा हुआ है जिसे हम अनदेखा कर देते हैं? आइए, इस बात की तह तक चलें, लेकिन एकदम फ्रेंडली अंदाज में — जैसे कॉलेज के दोस्तों के साथ चाय पर लंबी बहस हो रही हो।

बॉलीवुड में राजपूतों की छवि: इतिहास की प्रस्तुति या पब्लिसिटी का प्लॉट?


अगर हम पिछले 10–15 साल के बॉलीवुड को ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि ऐतिहासिक किरदारों पर बनी फिल्मों की संख्या काफी बढ़ी है। लेकिन उस बढ़ोतरी के साथ-साथ विवादों का ग्राफ भी ऊपर गया है। पद्मावत, जोधा अकबर, सम्राट पृथ्वीराज जैसी फिल्में उस लिस्ट में शामिल हैं, जहां या तो राजपूत समुदाय को गलत ढंग से दिखाने का आरोप लगा, या उनकी कहानी को जरूरत से ज़्यादा "ड्रामेटाइज" किया गया। अब सवाल उठता है कि क्यों? क्या वाकई फिल्ममेकर्स को इतिहास की गहराई में जाने की फुर्सत नहीं होती? या ये जानबूझकर किया जाता है ताकि लोगों की भावनाएं भड़कें, और फिल्म को मिल जाए फ्री की पब्लिसिटी?

फिल्में बनाना एक बिजनेस है — इसमें कोई शक नहीं। और जब कहानी में थोड़ी कंट्रोवर्सी डाल दी जाए, तो लोग फिल्म देखने खुद खींचे चले आते हैं — यही सोचते हुए कि “देखते हैं, क्या इतना बवाल वाकई ज़रूरी था?” यही वजह है कि ऐतिहासिक किरदारों को हाई इमोशनल वैल्यू होने के कारण अक्सर स्क्रिप्ट का हिस्सा बना लिया जाता है। लेकिन जब राजपूतों जैसे समुदाय की बात आती है, जो अपनी आन-बान-शान पर गर्व करता है, तो जरा सी भी "क्रिएटिव फ्रीडम" सीधा दिल को चीर जाती है।

क्या बॉलीवुड में सचमुच चलती है ‘कम्युनिटी-पॉलिटिक्स’?


यहां बात सिर्फ क्रिएटिविटी की नहीं है, बल्कि परदे के पीछे की उस सोच की भी है जो यह तय करती है कि किस समुदाय को कैसे दिखाया जाएगा। कई लोग मानते हैं कि बॉलीवुड में एक खास लॉबी काम करती है जो कुछ विशेष समुदायों को बार-बार या तो महिमामंडित करती है, या फिर खलनायक के रूप में दिखाती है। इस नजरिए से देखें तो राजपूतों के साथ जो होता आया है — चाहे वो ऐतिहासिक फिल्मों में हो या समसामयिक कहानियों में — वो कोई संयोग नहीं बल्कि एक ट्रेंड जैसा लगता है।

जब वीरता, बलिदान और साहस जैसे गुणों को फिल्म में एक संदिग्ध लेंस से दिखाया जाता है, तो समुदाय को लगता है कि उनके पूर्वजों के साथ अन्याय हो रहा है। और चूंकि फिल्में जनता के मानस को प्रभावित करती हैं, ये सांस्कृतिक लड़ाई बन जाती है — जिसमें भावना और इतिहास आमने-सामने खड़े हो जाते हैं।

समाजवादी पार्टी और राजपूतों की सियासी खींचतान: इतिहास से लेकर आज तक


अब चलते हैं पॉलिटिक्स के मैदान में, जहां समाजवादी पार्टी और राजपूत समुदाय के बीच का रिश्ता हमेशा सीधा-सपाट नहीं रहा। हाल ही में SP सांसद रामजी लाल सुमन ने संसद में राणा सांगा को "गद्दार" कह दिया, और ये बयान पूरे राजपूत समाज के बीच आग की तरह फैल गया। बीजेपी ने फौरन इसे हिंदू गौरव और राजपूत आत्मसम्मान का मामला बनाकर SP को घेरा। लेकिन ये कोई पहली बार नहीं था जब SP और ठाकुर समुदाय आमने-सामने आए हों।

2003 में जब मुलायम सिंह यादव ने राजा भैया जैसे ठाकुर नेताओं को साथ लेकर सरकार बनाई थी, तब SP ने जातिगत बैलेंस साधने की कोशिश की थी। लेकिन वक्त के साथ पार्टी की सोच यादव-मुस्लिम फॉर्मूले पर केंद्रित हो गई। इस बदलाव ने ठाकुरों को SP से दूर कर दिया, और उन्होंने धीरे-धीरे बीजेपी की ओर रुख करना शुरू किया। आज SP के पास ठाकुरों का समर्थन लगभग न के बराबर है, और शायद इसी वजह से पार्टी के कुछ नेता जानबूझकर ऐसे बयान देकर अपने कोर वोट बैंक को खुश करने की कोशिश करते हैं, भले ही वो बयान आग में घी डालने का काम करें।

इतिहास को वर्तमान के आईने में देखने की गलती: ‘गद्दार’ कौन और क्यों?


राजा राणा सांगा ने इतिहास में बाबर को बुलाया — ये एक ऐतिहासिक तथ्य नहीं है। लेकिन उसे ‘गद्दारी’ की कैटेगरी में रखना, वो भी आज के संदर्भों के हिसाब से, एक खतरनाक मिसाल बन सकती है। इतिहास को तात्कालिक राजनीतिक ज़रूरतों के हिसाब से तोड़ना-मरोड़ना, न सिर्फ उस कालखंड के साथ अन्याय है बल्कि आज की सामाजिक समझ को भी भ्रमित करता है। जब किसी समुदाय के ‘नायकों’ को अचानक ‘खलनायक’ बना दिया जाता है, तो उसमें सिर्फ वोट नहीं टूटते, भरोसा भी टूटता है।

इतिहास पढ़ने का मतलब है संदर्भों को समझना — लेकिन राजनीति में संदर्भ नहीं, सिर्फ परिणाम मायने रखते हैं। SP का बयान भले ही एक ‘इतिहास चर्चा’ का हिस्सा था, लेकिन आम जनमानस में ये ‘अपमान’ के रूप में पहुंचा। यही वजह है कि पार्टियां ऐसे मामलों में उलझ जाती हैं, फिर डैमेज कंट्रोल करती हैं — लेकिन तब तक तीर चल चुका होता है।

असली कारण क्या हैं — परदे के पीछे की परतें


राजपूत संस्कृति को टारगेट करने की बात एक भावनात्मक विषय है, लेकिन इसके पीछे गहरी राजनीति और रणनीति भी है:

  • इतिहास की राजनीतिक व्याख्या: जब कोई पार्टी या फिल्मकार इतिहास को अपने पक्ष में मोड़ता है, तो वो सिर्फ एक किस्सा नहीं बदलता, वो एक पूरे समुदाय की पहचान को पुनः परिभाषित करता है।
  • जातिगत समीकरण: ठाकुर बनाम यादव, OBC बनाम ऊंची जाति — ये सभी समीकरण उत्तर भारत की राजनीति का हिस्सा हैं। जब किसी समुदाय को साइडलाइन किया जाता है, तो उनके प्रतीकों को कमजोर करने की कोशिश होती है। ये केवल शब्दों का खेल नहीं, यह सत्ता के समीकरण का हिस्सा है।
  • मीडिया और सिनेमा का कॉम्बो: जब कोई फिल्म, बयान या इंटरव्यू एक नैरेटिव सेट करता है, तो वह बहुतों के लिए ‘सच’ बन जाता है। और सच वही जो बार-बार दिखाया जाए — यही मीडिया की ताकत है।
  • हिंदुत्व और सेक्युलर नैरेटिव की टकराहट: BJP राजपूत प्रतीकों को अपना रही है और उन्हें हिंदू शौर्य का प्रतीक बना रही है। वहीं SP और अन्य सेक्युलर पार्टियां इस नैरेटिव को बैलेंस करने की कोशिश में कभी-कभी उल्टा प्रभाव पैदा कर बैठती हैं।

लोग क्या सोचते हैं – जमीन से उठती आवाजें


जब हमने कुछ राजपूत युवाओं और बुजुर्गों से बात की, तो ज़्यादातर का कहना था कि “हमारे पूर्वजों ने देश और धर्म के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं, लेकिन आज उनकी छवि को संदिग्ध बना दिया जाता है। ये सिर्फ इतिहास का अपमान नहीं है, ये पूरे समुदाय को नीचा दिखाने की साजिश लगती है।” वहीं कुछ युवाओं ने कहा कि ये सब “इमोशन का गेम” है, जिसमें वोट और पैसे के लिए भावना से खेला जाता है।

हालांकि कुछ समझदार लोगों ने ये भी कहा कि इतिहास को हर इंसान अपने नजरिए से देखता है, और कभी-कभी मुद्दे उतने बड़े नहीं होते जितने मीडिया बना देती है। लेकिन इन सबके बीच एक बात साफ है — जब भी कोई फिल्म, बयान या किताब किसी समुदाय की भावनाओं को आहत करती है, तो उसका असर गहरा होता है। इसलिए जिम्मेदारी सबकी है — बनाने वालों की भी और समझने वालों की भी।

आगे क्या किया जाए – समाधान की राह


अब जब हम इस गपशप के आखिरी हिस्से में हैं, तो सोचते हैं कि क्या ये सब बस चलता ही रहेगा? या हम इससे कुछ सीख भी सकते हैं?

  • बॉलीवुड को चाहिए रिसर्च और संवेदनशीलता: फिल्म बनाने से पहले इतिहासकारों और संबंधित समुदायों से बात की जाए, तो शायद कई विवाद बच सकते हैं।
  • राजनीतिक पार्टियों को चाहिए ठहराव और सोच: सत्ता की राजनीति के लिए इतिहास का उपयोग ज़रूरी नहीं, बल्कि खतरनाक है। समाज को जोड़ने के लिए नेताओं को शब्दों का चुनाव सोच-समझकर करना चाहिए।
  • जनता को चाहिए जागरूकता और समझदारी: हर चीज़ पर भावुक होने से बेहतर है फैक्ट्स को जांचना, दोनों पक्षों की बात सुनना और तब राय बनाना।

आखिरी बात – सम्मान, समझदारी और संवेदना से बनेगा समाज


राजपूत संस्कृति सिर्फ तलवार और युद्ध की कहानी नहीं है, वो एक दर्शन है — साहस, समर्पण और स्वाभिमान का। चाहे वो महाराणा प्रताप हों या पृथ्वीराज चौहान, उनका योगदान भारतीय सभ्यता का अमूल्य हिस्सा है। इस पर गर्व किया जाना चाहिए, लेकिन इसका राजनीतिक उपयोग नहीं।

तो अगली बार जब कोई फिल्म या बयान विवाद पैदा करे, तो सबसे पहले ठहरो, सोचो और फिर सवाल पूछो — “ये सच में इतिहास है, या फिर कोई स्क्रिप्ट?” और अगर जवाब नहीं मिले, तो वही करो जो एक सच्चा दोस्त करता है — शांति से, लेकिन दृढ़ता से अपनी बात रखो।



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